जिसने उम्मीद के बीज बोये (भाग -2)

 जिसने उम्मीद के बीज बोये (भाग -2)



यह सब सुनने के बाद मैं उस इंसान की उम्र के बारे में अटकलें लगाने लगा। वह निश्चित रूप से पचास वर्ष से ऊपर का होगा। उसने मुझे खुद बताया कि वह पचपन साल का है। एक समय तराई के निचले क्षेत्र में उसकी खेती-बाड़ी थी। पर अचानक उसके इकलौते लड़के और फिर पत्नी की मृत्यु हो गई। इससे उसको गहरा सदमा पहुँचा। तभी मे एकांतवास के लिए वह अपने कुत्ते और भेड़ों के साथ यहाँ चला आया। उसका मानना था कि पेड़ों के बगैर जमीन धीरे-धीरे मर रही है। क्योंकि उसके जिम्मे और कोई जरूरी काम नहीं था इसलिए उसने जमीन की इस खराब हालत को सुधारने की ठानी।


क्योंकि उस समय मैं नौजवान था और सैर- सपाटे के लिए एक वीरान इलाके में निकला था, इसलिए मैं उसका मर्म कुछ समझ पाया। मैं उस समय नादान था और एक अच्छे खुशहाल भविष्य की राह तलाश रहा था। मैंने उससे कहा कि अगले तीस बरसों में उसके लगाए गए यह दस हजार पेड़ घने और सुंदर जंगल का रूप ले लेंगे। उसने मेरे प्रश्न के उत्तर में एक सरल-सा जवाब दिया। उसने कहा कि अगर भगवान ने उसे लंबी उम्र बरुणी तो वह अगले तीस सालों में इतने ज्यादा पेड़ लगाएगा कि यह दस हजार पेड़ तो समुद्र की एक बूँद जितने नजर आएँगे। इसके अलावा वह कुछ फलदार पेड़ों के बीजों के अंकुरण के बारे में भी प्रयोग कर रहा था। इसके लिए उसने अपने घर के बाहर एक पौधशाला बनाई थी। कुछ पौधों को उसने कैटीली तार लगाकर भेड़ों से सुरक्षित रखा था। ये पौधे बहुत अच्छी तरह बढ़ रहे थे। उसने नीचे घाटी में कुछ और किस्म के बीज बोने की योजना बनाई थी। घाटी की जमीन में कुछ गहराई पर मिट्टी में नमी थी। इसी वजह से यह पेड़ वहाँ अच्छी जड़ पकड़ते।

अगले दिन में वहाँ से निकल पड़ा।

      अगले बरस १९१४ का पहला महायुद्ध शुरू हो गया। मेरी फौज की टुकड़ी इस जंग में पाँच साल तक लड़ती रही। एक फौज़ी सिपाही की हैसियत से लड़ाई के दौरान मुझे पेड़ों के बारे में सोचने तक की फुर्सत नहीं मिली। सच बात तो यह थी कि उस घटना का मुझ पर बिलकुल असर नहीं हुआ था। लोगों को अलग-अलग शौक होते हैं- कुछ लोग डाक टिकट इकट्ठा करते हैं तो कुछ लोग विभिन्न देशों के सिक्के। कुछ लोगों को शौकिया तौर पर पेड़ लगाने में भी मज़ा आता होगा। मैं इस घटना को लगभग भूल गया था। लड़ाई खत्म होने के बाद मुझे एक लंबी छुट्टी मिली और साथ में अच्छी खासी रकम भी मिली।मैंने सोचा क्यों न सैर-सपाटा किया जाए। और इसी उद्देश्य से मैं एक दफा फिर उसी वीरान इलाके में घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़ा। उस इलाके की हुलिया में कोई खास बदलाव नहीं आया था। परंतु उस खंडहर हुए गाँव में जब मैं पहुँचा तो मुझे दूर- दराज की पहाड़ियों पर एक धुंध-सी नजर आई। अब जैसे-जैसे मैं उस गडरिए के घर के नजदीक पहुँच रहा था उसकी याद उतनी ही तरोताजा होती जा रही थी। मैं मन में कल्पना कर रहा था कि वह दस हजार पेड़ अब कितने बड़े हो गए होंगे।

         मैंने तमाम लोगों को जंग के दौरान मरते देखा था। अगर कोई कहता कि वह गडरिया अब मर चुका है, तो इस बात को मानने में मुझे कोई भी दिक्कत नहीं होती। भला पचास-साठ का बूढ़ा मरने के अलावा और कर ही क्या सकता है। पर वह गडरिया मरा नहीं था। वह न केवल जिंदा था, पर एकदम भला-चंगा था। उसके काम के तरीके में थोड़ा बदलाव जरूर आया था। उसके पास अब केवल चार भेड़ें थीं परंतु सौ मधुमक्खियों के छत्ते भी थे। उसने अपनी भेड़ों को बेच दिया था। उसे डर था कि कहीं भेड़ें, उसके नए पौधों को खान जाएँ। मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि महायुद्ध से उसके कामकाज में कोई फर्क नहीं पड़ा था। वह उस भीषण लड़ाई से एकदम बेखबर था और लगातार बीज बो रहा था और पेड़ लगा रहा था।

१९१० में लगाए गए पेड़ अब इतने ऊँचे हो गए थे कि उनके सामने हम दोनों बौने से लग रहे थे। हरे, लहलहाते मेड़ों का दृश्य बस देखते ही बनता दराज की पहाड़ियों पर एक बुध-सी नजर आई। अब जैसे-जैसे मैं उस गडरिए के घर के नजदीक पहुँच रहा था उसकी याद उतनी ही तरोताजा होती जा रही थी। मैं मन में कल्पना कर रहा था कि वह दस हजार पेड़ अब कितने बड़े हो गए होंगे। मैंने तमाम लोगों को जंग के दौरान मरते देखा था। अगर कोई कहता कि वह गडरिया अब मर चुका है, तो इस बात को मानने में मुझे कोई भी जिन्हें उसने पाँच बरस पहले लगाया था। उस समय मैं फ्रंट पर लड़ रहा था। उसने इन पेड़ों की घाटी की तलहटी में लगाया था, जहाँ कि मिट्टी में अधिक नमी थी। इन पेड़ों की जड़ों ने मिट्टी को बाँधे रखा अनुमान लगाने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि वह एकदम अकेला था, और एक सुनसान इलाके में अपना काम करता था। उसके एकांत माहौल में इतनी खामोशी थी कि अंत में वह था। इस असाधारण बदलाव का वर्णन करना भी मेरे लिए संभव नहीं है। सारा दिन, चुप्पी साधे इस हरे-भरे जंगल में घूमते रहे। हरे-भरे पेड़ों की यह वादी अब ग्यारह किलोमीटर लंबी और तीन किलोमीटर चौड़ी हो गई थी। यह सब कुछ एक अशिक्षित गडरिए के दो हाथों की कड़ी मेहनत का फल था। उसकी इंसानियत और दरियादिली देखकर मेरा दिल भर आया। मुझे लगा कि अगर कोई आदमी चाहे तो लड़ाई और तबाही का रास्ता छोड़कर, वह भी भगवान की तरह एक प्यारी और सुंदर दुनिया गढ़ सकता है।

वह दुनिया में हो रही हलचल से एकदम बेखबर अपने सपनों को साकार कर रहा था। हवा में लहलहाते चीड़ के असंख्य पेड़ इस बात के मूक गवाह थे। उसने मुझे कुछ देवदार के पेड़ दिखाए, जिन्हें उसने पाँच बरस पहले लगाया था। उस समय मैं फ्रंट पर लड़ रहा था। उसने इन पेड़ों की घाटी की तलहटी में लगाया था, जहाँ कि मिट्टी में अधिक नमी थी। इन पेड़ों की जड़ों ने मिट्टी को बाँधे रखा था। उनकी चौड़ी पत्तियाँ छतरियों की तरह धूप को रोक रही थी। और जमीन को तपने से बचा रही थीं।

इस बंजर जमीन में पेड़ों के लगने से एक नई जान आई थी। परंतु उसके पास यह सब देखने के लिए वक्त ही कहाँ था। वह अपने काम में इतना व्यस्त जो था। परंतु वापसी में, मुझे गाँव के पास कुछ झरनों में से पानी की कलकल सुनाई दी। यह झरने न जाने कब से सूखे पड़े थे। पेड़ों के लगने का यह सबसे उत्साहजनक परिणाम था। बहुत साल पहले इन नालों में अवश्य पानी बहता होगा। जिन खंडहर हुए गाँवों का जिक्र मैंने पहले किया था, वह शायद कभी इन नालों के किनारे ही बसे होंगे। हवा भी बीजों को दूर-दूर फैला रही थी। पानी के दुबारा बहने से नालों के किनारों पर अनेक प्रकार के पौधे और घास उग आई थीं। तरह-तरह के बीज जो मिट्टी की चादर ओढ़े सो रहे थे, अब अपनी नींद से जागे थे। जंगली फूल अपनी रंग- बिरंगी आँखों से आसमान को ताक रहे थे। ऐसा लगता था जैसे जिंदगी जीने में कुछ मतलब हो। पर यह सब बदल इतनी धीमी और प्राकृतिक गति से हुई थी कि उसे मानने में कोई अचरज नहीं लगता था। खरगोश और जंगली सूअर के शिकारियों ने इन पेड़ों के सैलाब को देखा अवश्य था। परंतु उन्होंने उसे पृथ्वी की सनक समझ कर भुला दिया था। तभी तो उसे गडरिए के काम में किसी ने कोई दखल नहीं दी थी। अगर उसे किसी ने देखा होता तो अवश्य उसका विरोध हुआ होता। पर उसे ढूँढ पाना बहुत मुश्किल था। सरकार में या आस-पास के गाँव में, कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह विशाल जंगल किसी ने अपने हाथों से लगाया था। इस अनोखे इंसान के व्यक्तित्व का सही अनुमान लगाने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि वह एकदम अकेला था, और एक सुनसान इलाके में अपना काम करता था। उसके एकांत माहौल में इतनी खामोशी थी कि अंत में वह बोलना-चालना भी भूल गया। शायद यह भी संभव है कि उसकी जिंदगी में अब शब्दों की जरूरत भी नहीं रह गई थी।

१९३३ में पहली बार एक फारेस्ट रेंजर भूले- भटके उस तक पहुँचा। रेंजर ने उसे उस आदेश से अवगत कराया जिसमें जंगल के आस-पास किसी तरह की बीड़ी सिगरेट या आग जलाने पर पाबंदी लगा दी गई थी। ज्वलनशील चीजों से इस सरकारी जंगल को खतरा था। उस रेंजर ने उस जंगल को खुद-ब-खुद उगते देखकर स्वयं भी आश्चर्य प्रकट किया। इस समय वह गडरिया अपने घर से करीब १२ किलोमीटर की दूरी पर कुछ चीड़ के पेड़ लगाने की सोच रहा था। इतनी दूर रोज़ आने-जाने की बजाए उसने उसी स्थान पर अपना घर बनाने की सोची। अगले साल वह नए मकान में चला गया।


१९३५ में उस प्राकृतिक जंगल का मुआयना करने एक बड़ा सरकारी दल भी आया। उसमें वन विभाग के तमाम अफसर शामिल थे। उन्होंने तमाम बेमतलब की बातें की। उनकी निरर्थक बातों से और तो कोई लाभ नहीं हुआ, पर इतना अवश्य हुआ कि सारा जंगल 'सुरक्षित-वन-क्षेत्र' घोषित कर दिया गया। उसका एक फायदा यह हुआ कि लकड़ी से कोयला बनाने के धंधे पर पाबंदी लग गई। इस जंगल की सुंदरता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता था। शायद इसी खूबसूरती की वजह से ही सरकारी अस्पतालों का दिल भी पिघल गया था। मुआयने के लिए आए दल में मेरा एक मित्र भी था। जब मैंने उसे जंगल का सही रहस्य बताया तो वह आश्चर्यचकित रह गया।



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