जिसने उम्मीद के बीज बोये
इस कहानी की शुरूआत दरअसल काफी पुरानी है। आज से कोई अस्सी-बयासी वर्ष पहले जब लेखक फौज में भर्ती हुआ था। साल भर की ट्रेनिंग के बाद उसे पंद्रह दिन की छुट्टी मिली थी। छुट्टी में घर जाने के बजाए उसने घुमक्कड़ी की सोची। अपने फौजी थैले में कुछ खाने का सामान और पानी की बोतल रखकर वह सैर पर निकल पड़ा। जून का महीना था। सूरज की गर्मी से जमीन तप रही थी। तेज हवा धूल के बवंडर उड़ा रही थी। बियाबान के सन्नाटे में उसे दूर एक परछाईसी दिखाई दी...
किसी आदमी की इंसानियत का सही अंदाजा लगाने के लिए उसे एक लंबे अर्से तक जाँचना परखना जरूरी है। अगर कोई फल की इच्छा करे बगैर दूसरों की भलाई में लगा हो तो उससे अच्छा और क्या हो सकता है। जिस इंसान की कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ उसने तो अपनी मेहनत और लगन से इस धरती की तस्वीर ही बदल डाली।
बात दरअसल काफी पुरानी है। आज से करीब चालीस साल पहले मैं फौज में भरती हुआ था। साल भर की ट्रेनिंग के बाद मुझे पंद्रह दिन की छुट्टी मिली थी। छुट्टी में घर जाने की बजाए मैंने घुमक्कड़ी की सोची। अपने फौज़ी थैले में कुछ खाने का सामान और पानी की बोतल रखकर मैं सैर को निकल पड़ा। जिस इलाके से मैं गुजर रहा था उसे मैं पहले से नहीं जानता था। जमीन एकदम बंजर थी। कहीं-कहीं पीले धतूरे की कँटीली झाड़ियाँ थीं। बाकी जगह सूखी घास के अलावा और कुछ नहीं उग रहा था। मुझे अब इस इलाके में चलते-चलते दो दिन हो गए थे। यह इलाका काफी वीरान था और माहौल में भी एक सन्नाटा छाया हुआ था। जहाँ मैं अब खड़ा था वहाँ शायद कभी गाँव रहा होगा। एक झुरमुटे में छह-सात मकान थे जो अब खंडहर में बदल गए थे। इन्हें देखकर मुझे लगा कि आसपास कोई कुओं या पानी का सोता जरूर होगा। थोड़ा ढूँढने पर एक नाला दिखाई भी दिया। पर वह भी अब सूख गया था। मैंने वहीं पर कुछ देर आराम करने की सोची। मेरा पानी खत्म हो गया था औरप्यास से मेरा गला चटख रहा था। गाँव के एक कोने में एक टूटा मंदिर भी दिखाई दिया। पर वहाँ अब कोई नहीं रहता था।
जून का महीना था। सूरज की गर्मी से जमीन तप रही थी। तेज हवा के झोके धूल के बवंडर उड़ा रहे थे। इस उदासी भरे माहौल को मैं ज्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर सका। मैंने एक सँकरी पगडंडी पकड़ी और आगे बढ़ा। पाँच घंटे चलते रहने के बाद भी मुझे कहीं भी पानी नहीं मिला। अब तो मैं पानी की उम्मीद भी खो बैठा था। मेरे चारों तरफ सूखी मिट्टी में उगी कैटीली झाड़ियों के। अलावा और कुछ भी न था। इस सन्नाटे में मुझे दूर एक काली परछाई-सी दिखाई दी। मुझे दूर से वह पेड़ जैसा लगा और मैं उस ओर चल पड़ा। पास पहुँचने पर वह एक गडरिया निकला। उसके आसपास पकी मिट्टी में तीस भेड़े बैठी थीं।
उसके लौकी की तुम्बी में से मुझे पानी पिलाया और कुछ देर बाद वह मुझे अपने घर ले गया। वह एक गहरे प्राकृतिक कुएँ में से पानी खीचता था। इतनी गहराई से पानी खींचने के लिए उसने घिरनियों और रस्सियों की एक जुगाड़ बनाई थी। वह आदमी बहुत कम बोलता था। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि वह एकदम अकेला रहता था और उसके साथ बोलने वाला कोई नहीं था। पर उसके आत्म-विश्वास को देखकर ऐसा लगता था जैसे वह अपने काम में मुस्तैद हो। इस सुनसान बंजर इलाके में मुझे उससे मिलने की कोई उम्मीद न थी। वह बाकायदा एक पक्के मकान में रहता था, जिसे उसने आसपास के पत्थरों से खुद बनाया था।
घर की छत मजबूत थी। छत से हवा टकरा कर साँय-साँय कर रही थी।
घर में सभी चीजें कायदे करीने से रखी थीं। बर्तन मंझे-धुले थे और फर्श साफ-सुथरा था। एक कोने में धारदार कुल्हाड़ी रखी थी। चूल्हे की धीमी आग पर पतीली चड़ी थी जिसमें खिचड़ी पक रही थी। उसने इतनी मुस्तैदी से अपने कोट पर पैबन्द लगाया था कि वह नजर ही नहीं आता था। उसने खिचड़ी मुझे भी खिलाई। खाने के बाद मैंने सिगरेट जलाई और एक उसे भी दी। उसने कहा कि वह सिगरेट नहीं पीता। उसका एक झबरीला कुत्ता था। पर वह भी अपने मालिक की तरह चुपचाप रहता था।
पहली मुलाकात के बाद ही मुझे ऐसा लगा जैसे रात को ठहरने की मंजूरी उसने मुझे दे दी हो।क्योंकि अगला गाँव करीब डेढ़ दिन की दूरी पर था, इसलिए यही अच्छा था कि मैं अपने थके पैरों को कुछ सुस्ता लेने दूँ। इस पहाड़ी इलाके में दूर-दराज पर कई छोटी-छोटी बस्तियाँ थी। बस्तियाँ आपस में कच्ची सड़कों से जुड़ी थीं। इन बस्तियों में रहने बाले लोग लकड़ी से कोयला बनाने का धंधा करते थे। कोयले के धंधे की वजह से आस-पास के सभी पेड़ कट चुके थे। बेरहम हवा को रोकने-टोकने बाला कोई पेड़ नहीं बचा था। टीलों पर हरदम धूल भरी आँधी नाचा करती थी। कोयले के धंधे में कोई ज्यादा फायदा नहीं था। कोयले को गाड़ी से शहर तक ले जाते हुए दो दिन लग जाते थे। बदले में दलाल जो पैसा देते थे उससे मुश्किल से खर्च निकल पाता था। क़र्ज,बीमारीऔरअनउपजाऊ ज़मीन के कारण कोयले का धंधा करने वाले परिवार भी तिल-तिल करके मर रहे थे। खाने के बाद गडरिए ने एक छोटा थैला उठाया और उसके सारे बीज मेज़ पर उँडेल दिए। फिर वह बहुत ध्यान से उनकी जाँच परख करने लगा। वह एक-एक बीज को उठाता, उसे गौर से देखता और बाद में उनमें से अच्छे बीजों को एक तरफ छाँट कर रख देता। मैंने सिगरेट का एक कश खींचा और सोचा कि मैं भी बीज छँटाई के काम में गडरिए की कुछ मदद करें। परंतु उसने कहा कि यह काम वह खुद ही करेगा। और जिस लगन और एकाग्रता के साथ वह अपना काम कर रहा था उसे देखकर मुझे अपनी यह दखलंदाजी ठीक भी नहीं लगी। हम लोगों के बीच कुल मिलाकर इतनी थोड़ी ही बातचीत हुई थी। बीजों को छाँटने के बाद वह उसमें से अच्छे बीजों की दस-दस की ढेरी बनाने लगा। ढेरी बनाते वक्त वह बीजों का बहुत बारीकी से मुआयना करता। उनमें से थोड़े भी दागी या चटखे हुए बीजों को वह अलग कर देता। इस तरह से उसने सौ अच्छे बीज छाँटे, उनको एक थैली में भरा और सोने चला गया।न जाने क्यों इस इंसान के साथ मुझे बड़ी शांति का अहसास हो रहा था। अगले दिन सुबह मैंने उससे पूछा कि क्या मैं उसके यहाँ एक दिन और आराम कर सकता हूँ। उसने सहज ही इसकी इजाजत दे दी। उसके बाद वह दुबारा अपने काम में व्यस्त हो गया। अब आगे और कुछ बातचीत की आवश्यकता भी नहीं थी। पर मेरे अंदर कौतुहल जाग रहा था और मैं उस गडरिए की जीवन-गाथा जानने को उत्सुक था।
सबसे पहले उसने उन घंटे हुए बीजों को एक पानी के बर्तन में भिगो दिया। फिर उसने भेड़ों की बाड़ खोली और उन्हें चारागाह की ओर ले चला। मैंने देखा कि गडरिए के हाथ में लकड़ी की बजाए एक पाँच फुट लंबी लोहे की छड़ थी। छड़ मेरे अँगूठे जितनी मोटी होगी। मैं भी चुपके-चुपके गडरिए के पीछे हो लिया। भेड़ों का चारागाह नीचे
घाटी में था। थोड़ी देर पश्चात वह भेड़ों को अपने झबरीले कुत्ते की देखरेख में छोड़कर वह खुद, धीरे- धीरे पहाड़ी पर मेरी ओर बढ़ा। मुझे लगा कि वह मेरी इस दखलंदाजी पर बौखलाएगा। परंतु उसने ऐसा कुछ नहीं किया। वह अपने रास्ते चला और क्योंकि मेरे पास और कुछ करने को नहीं था इसलिए मैं भी उसके पीछे-पीछे हो लिया। वह लगभग सौ गज की दूरी पर एक टीले पर चढ़ा। वहाँ पर उसने लोहे की छड़ से मिट्टी को खोद कर एक गड्डा बनाया। इसमें उसने एक बीज बोया और फिर छेद को मिट्टी से भर दिया। वह देसी पेड़ों के बीज बो रहा था। मैंने उससे पूछा कि क्या वह जमीन उसकी अपनी जायदाद है। उसे यह भी नहीं मालूम था कि वह जमीन किसकी है। शायद वह गाँव की सामूहिक जमीन हो, या. फिर कुछ ऐसे रईसों की जिन्हें इस जमीन की कुछ परवाह ही न हो। जमीन का मालिक कौन है यह जानने में उसकी कोई रुचि न थी। उसने उन सौ बीजों को बहुत प्यार और मोहब्बत के साथ बो दिया।
दोपहर के खाने के बाद वह बीज बोने के अपने काम में दुबारा व्यस्त हो गया। मैंने शायद अपना सवाल बार-बार दोहराया होगा, क्योंकि अंत में मुझे उसके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी जरूर मिली। पिछले तीन बरस से वह उस बियाबान इलाके में पेड़ों के बीज बो रहा था। वह अभी तक एक लाख बीज बो चुका था। इन एक लाख बीजों में से केवल २० हजार ही पौधे निकले थे। उसे लगता था कि इन बीस हजार में से केवल आधे ही जिंदा बचेंगे। आधे या तो किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होंगे या. फिर उन्हें चूहे कुतर जाएँगे। पर जहाँ पहले कुछ भी नहीं था वहाँ अब कम-से-कम दस हजार पेड़ तो उग रहे हैं
इसका अगला भाग सुनने के लिए आप मुझे फॉलो करें

0 Comments